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सोजे-ए-वतन--मुंशी प्रेमचंद


यही मेरा वतन

मैंने एक सिगरेट की डिबिया ली और एक सुनसान जगह पर बैठकर बीते दिनों की याद करने लगा कि यकायक मुझे उस धर्मशाला का ख़याल आया जो मेरे परदेश जाते वक़्त बन रहा था। मैं उधर की तरफ़ लपका कि रात किसी तरह वहीं काटूँ, मगर अफ़सोस, हाय अफ़सोस, धर्मशाला की इमारत ज्यों की त्यों थी, लेकिन उसमें ग़रीब मुसाफ़िरों के रहने के लिए जगह न थी। शराब और शराबखोरी, जुआ और बदचलनी का वहाँ अड्डा था। यह हालत देखकर बरबस दिल से एक ठण्डी आह निकली, मैं ज़ोर से चीख़ उठा-नहीं-नहीं और हज़ार बार नहीं यह मेरा वतन, मेरा प्यारा देश, मेरा प्यारा भारत नहीं है। यह कोई और देश है। यह योरप है, अमरीका है, मगर भारत हरिगज नहीं।
अँधेरी रात थी। गीदड़ और कुत्ते अपने राग अलाप रहे थे। मैं दर्दभरा दिल लिये उसी नाले के किनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा कि अब क्या करूँ? क्या फिर अपने प्यारे बच्चों के पास लौट जाऊँ और अपनी नामुराद मिट्टी अमरीका की ख़ाक में मिलाऊँ? अब तो मेरा कोई वतन न था, पहले मैं वतन से अलग ज़रूर था मगर प्यारे वतन की याद दिल में बनी हुई थी। अब बेवतन हूँ, मेरा कोई वतन नहीं। इसी सोच-विचार में बहुत देर तक चुपचाप घुटनों में सिर दिये बैठा रहा। रात आँखों ही आँखों में कट गयी, घडिय़ाल ने तीन बजाये और किसी के गाने की आवाज़ कानों मे आयी। दिल ने गुदगुदाया, यह तो वतन का नग्मा है, अपने देश का राग है। मैं झट उठ खड़ा हुआ। क्या देखता हूँ कि पन्द्रह-बीस औरतें, बूढ़ी, कमज़ोर, सफेद धोतियाँ पहने, हाथों में लोटे लिये स्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं-
प्रभु, मेरे अवगुन चित न धरो
इस मादक और तड़पा देने वाले राग से मेरे दिल की जो हालत हुई उसका बयान करना, मुश्किल है। मैंने अमरीका की चंचल से चंचल, हँसमुख से हँसमुख सुन्दरियों की अलाप सुनी थी और उनकी ज़बानों से मुहब्बत और प्यार के बोल सुने थे जो मोहक गीतों से भी ज्यादा मीठे थे। मैंने प्यारे बच्चों के अधूरे बोलों और तोतली बानी का आनन्द उठाया था। मैंने सुरीली चिडिय़ों का चहचहाना सुना था। मगर जो लुत्फ़, जो मज़ा, जो आनन्द मुझे गीत में आया वह जि़न्दगी में कभी और हासिल न हुआ था। मैंने खुद गुनगुनाना शुरू किया-
प्रभु, मेरे अवगुन चित न धरो
तन्मय हो रहा था कि फिर मुझे बहुत से आदमियों की बोलचाल सुनाई पड़ी और कुछ लोग हाथों में पीतल के कमण्डल लिये शिव शिव,हर, हर गंगे गंगे, नारायण-नारायण कहते हुए दिखाई दिये। मेरे दिल ने, फिर गुद-गुदाया, यह तो मेरे देश प्यारे देश की बाते हैं। मारे खुशी के दिल बाग़-बाग हो गया । मैं इन आदमियों के साथ हो लिया और एक दो तीन चार पाँच छ: मील पहाड़ी रास्ता पार करने के बाद हम उस नदी के किनारे पहुँचे जिसका नाम पवित्र है, जिसकी लहरों में डुबकी लगाना और जिसकी गोद में मरना हर हिन्दू सबसे बड़ा पुण्य समझता है। गंगा मेरे प्यारे गाँव से छ: सात मील पर बहती थी और किसी ज़माने में सुबह के वक़्त घोड़े पर चढक़र गंगा माता के दर्शन को आया करता था। उनके दर्शन की कामना मेरे दिल में हमेशा थी। यहाँ मैंने हज़ारों आदमियों को इस सर्द, ठिठुरते हुए पानी में डुबकी लगाते देखा। कुछ लोग बालू पर बैठे गायत्री मन्त्र जप रहे थे। कुछ लोग हवन करने में लगे हुए थे। कुछ लोग माथे पर टीके लगा रहे थे। कुछ और लोग वेदमन्त्र सस्वर पढ़ रहे थे। मेरे दिल ने फिर गुदगुदाया और मैं ज़ोर से कह उठा- हाँ हाँ, यही मेरा देश है, यही मेरा प्यारा वतन है, यही मेरा भारत है। और इसी के दर्शन की, इसी की मिट्टी में मिल जाने की आरजू मेरे दिल में थी।

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